नारी विमर्श >> आँचल का प्यार आँचल का प्यारके. के. श्रीवास्तव
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बेरोजगारी व दहेज कुप्रथा पर आधारित उपन्यास
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
परिचय
एक वह समय था, जब एक भारतीय गर्व से कहता था कि मैं भारत का वासी हूँ। तब
तक ऐसे साहस की अनुभूति होती थी मानो हम भारत के नहीं वरन् स्वर्ग के वासी
हैं। हम उसी देश के वासी हैं, जिसके गर्व और दम्भ को अंग्रेज की कूटनीति
भी न तोड़ सकी। परन्तु आज का प्रत्येक भारतीय अनेकानेक समस्याओं से घिरा
हुआ एक नये युग की ओर प्रस्थान कर रहा है। वह नया युग आने वाली पीढ़ी के
लिए कैसा होगा, इसका अहसास हम सहज ही कर सकते हैं।
वैसे तो इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि आज की मुख्य समस्या बेरोजगारी है। शिक्षित और अशिक्षित दोनों ही वर्ग इस समस्या से ग्रस्त हैं। इसके बाद जो समस्यायें सामने आती हैं, वह है सामाजिक कुरीतियों के फलस्वरूप उपजी समस्यायें। जैसे वर्ग भेद, धर्म, संघर्ष, अमीर-गरीब के बीच संघर्ष आदि-आदि। परन्तु इस सामाजिक कुरीति के फलस्वरूप जो भयावह समस्या उभर कर सामने आई है, वह दहेज है।
यदि यह कहा जाए कि आज हमारे बीच में दहेज दानवों की उत्पत्ति हो रही है, तो अतिशयोक्ति न होगा। हालाँकि यह एक ऐतिहासिक यथार्थ है कि नारी सदियों से अत्याचारों के बीच जीती रही है और उसका आज से नहीं बल्कि वैदिक युग से ही शोषण होता आ रहा है। पता नहीं नारियों पर इतनी बंदिशें क्यों लगा दी गयीं जबकि नर-नारी दोनों ही समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
खैर वेद पुराण ने जो कुछ कहा है, उसकी आलोचना करना उचित प्रतीत नहीं होता। हम आज के आधुनिक युग में प्रवेश करके उस नये समाज का विश्लेषण करना चाहते हैं, जिसमें मात्र चाँदी के टुकड़ों के लिए नारी का उत्पीड़न किया जा रहा है। दहेज, एक ऐसा अभिशप्त शब्द बन चुका है, जिसके प्रकोप से समाज का पचास प्रतिशत वर्ग प्रभावित है। हालाँकि अनेक समाज-सेवी संस्थाओं ने इस कुप्रथा के विरुद्ध आवाजें बुलन्द कीं, सरकार ने भी कानून बनाकर अपना फर्ज निभा दिया है, परन्तु इसकी कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आयी है। यदि आई है तो केवल यह कि दहेज की माँग और भी बढ़ गयी है।
कितना आश्चर्य है कि दहेज मिलने के बाद भी नारी का उत्पीड़न वर पक्ष द्वारा किया जाता है और लड़की के मां-बाप से अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए कुचक्र किए जाते हैं। यदि माँ-बाप वर पक्ष की इच्छा को पूर्ण करने में असमर्थ रहते हैं, तो उसके कुपरिणाम के फलस्वरूप लड़की की जान तक चली जाती है। अर्थात् शादी के बाद सुनहले सपने धूल में मिल जाते हैं। कभी-कभी तो यहाँ तक देखा जाता है कि वर पक्ष वाले यहाँ तक बोल देते हैं कि ‘‘चाहे चोरी करो, डाका डालो, इससे मेरा कोई मतलब नहीं, मुझे तो रुपया चाहिए। आखिर मैंने भी तो अपने लड़के की पढ़ाई-लिखाई पर इतना धन व्यय किया है। उसको खिला-पिला कर बड़ा किया है।’’ इसका तात्पर्य यह हुआ कि लड़की के माँ-बाप लड़की को पढ़ाते-लिखाते नहीं, उसे पालते-पोसते नहीं, बल्कि वह दैव, योग से बढ़ती जाती है। इसी क्रम में अभी हाल ही एक घटना स्मरित हो आयी। एक गरीब परिवार ने अपनी सुन्दर पुत्री का विवाह किया और माँग के अनुसार हीरो-हाण्डा, फ्रिज, टी.वी. आदि-आदि सामान दिए। परन्तु जब विदाई का वक्त आया तो लड़के के पिता ने कहा-‘अरे क्या दे दिया, कुछ भी नहीं। यदि इस प्रकार की घटनाओं का जिक्र किया जाए तो एक बड़ा ग्रंथ तैयार हो सकता है। वैसे भी इस प्रकार की घटनायें छिपी नहीं हैं, बल्कि समाचार पत्रों के माध्यम से जानी जा सकती हैं।
इसी क्रम में एक बिन्दु यह उठ खड़ा हुआ कि डाकू और दहेज लोभी में अन्तर क्या है। यदि देखा जाये तो बहुत बड़ा अन्तर है। डाकू के लिए तो सर्वविदित तथ्य है कि वह खूँखार और कातिल लुटेरा होता है, जिसका काम ही डकैती डालकर लूट-पाट, खून-खराबा करना होता है। परन्तु दहेज लोभी तो खुलेआम कुछ करता नहीं। कानूनन वह दहेज की रकम लेता नहीं है। दहेज पाने के लिए वह डकैती डालता नहीं। फिर दहेज लोभी को अपराध का अहसास किस प्रकार हो। अधिकांशतः दहेज प्रकरण प्रकाश में आते नहीं और जो आते हैं, वह सबूत के अभाव में बरी हो जाते हैं। हाँ यदि लड़की के पिता ताकतवर हुए तो अवश्य वर पक्ष दण्डित हो जाते हैं, अन्यथा सबूत के अभाव में ऐसे प्रकरण आसानी से निपटा दिए जाते हैं। यदि एक बार इन दोनों वर्गों अर्थात् डकैत और दहेज लोभी का वर्गीकरण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि डकैत जो कुछ करता है, वह डंके की चोट पर करता है यह जानते हुए कि इसके परिणाम के स्वरूप में फाँसी का फन्दा भी उसके गले में पड़ सकता है। परन्तु एक दहेज लोभी को इसका कोई भय नहीं होता है, क्योंकि वह जो कुछ करता है उसका अपने पीछे ऐसा कोई सुबूत नहीं छोड़ता जिससे उसे फाँसी के फन्दे का डर नहीं होता।
सबसे ज्यादा आश्चर्य तो आज के युवा वर्ग की मानसिक स्थिति पर होता है, जो इतना पढ़-लिखकर और योग्य बनकर इस कुप्रथा का शिकार होता जा रहा है। हालाँकि इन सबके पीछे वर-वधू दोनों ही पक्षों के बुजुर्गों का हाथ होता है, परन्तु यह युवा वर्ग इस कुप्रथा का विरोध क्यों नहीं कर रहा है, इसके पीछे अवश्य कोई न कोई रहस्य भरा है। यह भी हो सकता है कि इस प्रकार मानसिक विकृति रूपी बीमारी की उत्पत्ति आज के युवा वर्ग में हो रही हो। यदि ऐसा है, तो निश्चित रूप से आगे आने वाले कल के लिए गंभीर चुनौती साबित होगी।
इस प्रकार के तमाम बिन्दुओं को सँजो कर इस उपन्यास की रचना की गयी है। ‘सम्राट के आँसू’ जैसी उत्कृष्ट रचना के बाद यह नया साहित्य अपने पाठकों के समक्ष पेश किया जा रहा है, इस आशा में कि इस कुप्रथा के विरुद्ध शायद वह आवाज बुलन्द कर सके।
इस सम्बन्ध में यह भी स्पष्ट कर देना अनिवार्य है कि इस साहित्य में जो चित्रण किया गया है, वह काल्पनिक है और इसका सम्बन्ध किसी व्यक्ति विशेष अथवा स्थान विशेष से नहीं है।
वैसे तो इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि आज की मुख्य समस्या बेरोजगारी है। शिक्षित और अशिक्षित दोनों ही वर्ग इस समस्या से ग्रस्त हैं। इसके बाद जो समस्यायें सामने आती हैं, वह है सामाजिक कुरीतियों के फलस्वरूप उपजी समस्यायें। जैसे वर्ग भेद, धर्म, संघर्ष, अमीर-गरीब के बीच संघर्ष आदि-आदि। परन्तु इस सामाजिक कुरीति के फलस्वरूप जो भयावह समस्या उभर कर सामने आई है, वह दहेज है।
यदि यह कहा जाए कि आज हमारे बीच में दहेज दानवों की उत्पत्ति हो रही है, तो अतिशयोक्ति न होगा। हालाँकि यह एक ऐतिहासिक यथार्थ है कि नारी सदियों से अत्याचारों के बीच जीती रही है और उसका आज से नहीं बल्कि वैदिक युग से ही शोषण होता आ रहा है। पता नहीं नारियों पर इतनी बंदिशें क्यों लगा दी गयीं जबकि नर-नारी दोनों ही समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
खैर वेद पुराण ने जो कुछ कहा है, उसकी आलोचना करना उचित प्रतीत नहीं होता। हम आज के आधुनिक युग में प्रवेश करके उस नये समाज का विश्लेषण करना चाहते हैं, जिसमें मात्र चाँदी के टुकड़ों के लिए नारी का उत्पीड़न किया जा रहा है। दहेज, एक ऐसा अभिशप्त शब्द बन चुका है, जिसके प्रकोप से समाज का पचास प्रतिशत वर्ग प्रभावित है। हालाँकि अनेक समाज-सेवी संस्थाओं ने इस कुप्रथा के विरुद्ध आवाजें बुलन्द कीं, सरकार ने भी कानून बनाकर अपना फर्ज निभा दिया है, परन्तु इसकी कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आयी है। यदि आई है तो केवल यह कि दहेज की माँग और भी बढ़ गयी है।
कितना आश्चर्य है कि दहेज मिलने के बाद भी नारी का उत्पीड़न वर पक्ष द्वारा किया जाता है और लड़की के मां-बाप से अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए कुचक्र किए जाते हैं। यदि माँ-बाप वर पक्ष की इच्छा को पूर्ण करने में असमर्थ रहते हैं, तो उसके कुपरिणाम के फलस्वरूप लड़की की जान तक चली जाती है। अर्थात् शादी के बाद सुनहले सपने धूल में मिल जाते हैं। कभी-कभी तो यहाँ तक देखा जाता है कि वर पक्ष वाले यहाँ तक बोल देते हैं कि ‘‘चाहे चोरी करो, डाका डालो, इससे मेरा कोई मतलब नहीं, मुझे तो रुपया चाहिए। आखिर मैंने भी तो अपने लड़के की पढ़ाई-लिखाई पर इतना धन व्यय किया है। उसको खिला-पिला कर बड़ा किया है।’’ इसका तात्पर्य यह हुआ कि लड़की के माँ-बाप लड़की को पढ़ाते-लिखाते नहीं, उसे पालते-पोसते नहीं, बल्कि वह दैव, योग से बढ़ती जाती है। इसी क्रम में अभी हाल ही एक घटना स्मरित हो आयी। एक गरीब परिवार ने अपनी सुन्दर पुत्री का विवाह किया और माँग के अनुसार हीरो-हाण्डा, फ्रिज, टी.वी. आदि-आदि सामान दिए। परन्तु जब विदाई का वक्त आया तो लड़के के पिता ने कहा-‘अरे क्या दे दिया, कुछ भी नहीं। यदि इस प्रकार की घटनाओं का जिक्र किया जाए तो एक बड़ा ग्रंथ तैयार हो सकता है। वैसे भी इस प्रकार की घटनायें छिपी नहीं हैं, बल्कि समाचार पत्रों के माध्यम से जानी जा सकती हैं।
इसी क्रम में एक बिन्दु यह उठ खड़ा हुआ कि डाकू और दहेज लोभी में अन्तर क्या है। यदि देखा जाये तो बहुत बड़ा अन्तर है। डाकू के लिए तो सर्वविदित तथ्य है कि वह खूँखार और कातिल लुटेरा होता है, जिसका काम ही डकैती डालकर लूट-पाट, खून-खराबा करना होता है। परन्तु दहेज लोभी तो खुलेआम कुछ करता नहीं। कानूनन वह दहेज की रकम लेता नहीं है। दहेज पाने के लिए वह डकैती डालता नहीं। फिर दहेज लोभी को अपराध का अहसास किस प्रकार हो। अधिकांशतः दहेज प्रकरण प्रकाश में आते नहीं और जो आते हैं, वह सबूत के अभाव में बरी हो जाते हैं। हाँ यदि लड़की के पिता ताकतवर हुए तो अवश्य वर पक्ष दण्डित हो जाते हैं, अन्यथा सबूत के अभाव में ऐसे प्रकरण आसानी से निपटा दिए जाते हैं। यदि एक बार इन दोनों वर्गों अर्थात् डकैत और दहेज लोभी का वर्गीकरण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि डकैत जो कुछ करता है, वह डंके की चोट पर करता है यह जानते हुए कि इसके परिणाम के स्वरूप में फाँसी का फन्दा भी उसके गले में पड़ सकता है। परन्तु एक दहेज लोभी को इसका कोई भय नहीं होता है, क्योंकि वह जो कुछ करता है उसका अपने पीछे ऐसा कोई सुबूत नहीं छोड़ता जिससे उसे फाँसी के फन्दे का डर नहीं होता।
सबसे ज्यादा आश्चर्य तो आज के युवा वर्ग की मानसिक स्थिति पर होता है, जो इतना पढ़-लिखकर और योग्य बनकर इस कुप्रथा का शिकार होता जा रहा है। हालाँकि इन सबके पीछे वर-वधू दोनों ही पक्षों के बुजुर्गों का हाथ होता है, परन्तु यह युवा वर्ग इस कुप्रथा का विरोध क्यों नहीं कर रहा है, इसके पीछे अवश्य कोई न कोई रहस्य भरा है। यह भी हो सकता है कि इस प्रकार मानसिक विकृति रूपी बीमारी की उत्पत्ति आज के युवा वर्ग में हो रही हो। यदि ऐसा है, तो निश्चित रूप से आगे आने वाले कल के लिए गंभीर चुनौती साबित होगी।
इस प्रकार के तमाम बिन्दुओं को सँजो कर इस उपन्यास की रचना की गयी है। ‘सम्राट के आँसू’ जैसी उत्कृष्ट रचना के बाद यह नया साहित्य अपने पाठकों के समक्ष पेश किया जा रहा है, इस आशा में कि इस कुप्रथा के विरुद्ध शायद वह आवाज बुलन्द कर सके।
इस सम्बन्ध में यह भी स्पष्ट कर देना अनिवार्य है कि इस साहित्य में जो चित्रण किया गया है, वह काल्पनिक है और इसका सम्बन्ध किसी व्यक्ति विशेष अथवा स्थान विशेष से नहीं है।
आँचल का प्यार
समाजशास्त्रियों का मत है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अर्थात बिना
समाज के उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हम
बिना समाज के रह नहीं सकते। यदि इस बात की कल्पना भी कर ली जाये तो हमारा
अस्तित्व भी उन कीड़े-मकोड़ों की ही तरह होगा, जिस प्रकार वनों में पाये
जाने वाले कीट पतंगों का होता है। और यह हमारे समाज की ही देन है, जो हमें
नैतिकता की शिक्षा देकर विद्वान अथवा महान बनाने की प्रेरणा देता है।
परन्तु ऐसा नहीं है कि हमारे समाज में सभी विद्वान अथवा साधु प्रकृति के
ही लोगों का वास है, जो केवल नैतिकता की ही शिक्षा देते हैं। वरन्
वास्तविकता तो यह है कि हमारे समाज में कामी, क्रोधी, लोभी, अमीर-गरीब, और
रोगी तथा योगी सभी तरह के लोग मौजूद हैं। जो कामी हैं, वह अपना क्रोध समाज
के मासूम वर्ग के लोगों पर जताते हैं और जिस तबके को हम अमीर की संज्ञा
देते हैं, उन्हें अपनी तिजोरियों को भरने से ही समय नहीं मिलता। जो गरीब
हैं, वह अपनी छोटी-सी दुनिया में ही संतुष्ट है। परन्तु इन सबके बीच एक
ऐसा वर्ग है, जो न तो अमीर होता है और न ही गरीब। यह वर्ग एक ऐसा वर्ग है,
जो धन पाने के लिए लालायित तो रहता है परन्तु धन कैसे प्राप्त किया जाये,
इसका उपाय या तो वह जानते नहीं और यदि जानते हैं तो करना पसन्द नहीं करते।
मेहनत मजदूरी करना इन्हें शोभा नहीं देता और भीख माँगना इनकी प्रतिष्ठा के
अनुकूल नहीं। फिर यह कैसे धन प्राप्त करना चाहते हैं, इसके लिए हम एक ऐसे
परिवार में प्रवेश करते हैं, जिनके पास खेत हैं, खलिहान हैं और दो जून
रोटी व्यवस्था सुगमता से हो जाती है, परन्तु लोभ के शिकार ये लोग अपने धन
को बढ़ाने के लिए तरह-तरह के स्वप्न देखते रहते हैं। इस परिवार के
सर्वे-सर्वा सीताराम हैं। अभी कुछ ही वर्ष पूर्व अपने थोड़े से पढ़े-लिखे
बेटे राम सिंह की शादी एक खूबसूरत लड़की से कर दी थी। परन्तु जो दहेज की
रकम उन्हें मिली थी, उससे वे लोग सन्तुष्ट न हो सके। यदाकदा सीताराम और
रामसिंह उस नवयौवना कर्तव्यपरायण बाला उमादेवी से एवं उसके मायके वालों से
रुपये प्राप्त करने की साजिश करते रहते थे।
रामसिंह निरंतर एक ही बात उमा से कहता था—‘‘उमा बस केवल दस हजार रुपयों की ही तो बात है, अपने बाप से ला दे। मैं कोई अच्छा-सा व्यवसाय कर लूँगा और फिर तू रानी की तरह इस घर में राज करेगी।’’
‘‘आप समझने की कोशिश क्यों नहीं करते। अभी साल भर तो नहीं बीता विवाह को। सब कुछ तो बिक चुका है। मैं किस मुँह से उनसे रुपयों की बात कहूँ। यदि आप कोई धन्धा ही करना ही चाहते हैं तो आप मेरे गहनों को बेचकर कोई बढ़िया-सा धन्धा कर लें, ईश्वर ने चाहा तो...।’’ उमा ने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि रामसिंह चीख उठा—‘‘देख यह तिरिया चरित्तर किसी और को दिखाना। अब तक तो तुझे समझाता बुझाता रहा, लेकिन अब स्पष्ट शब्दों में कहे देता हूँ कि अगर तू अपनी भलाई चाहती है तो अपने बाप से जाकर कह दे कि वह दस हजार रुपयों की तुरन्त व्यवस्था कर दें अन्यथा....।’’
रामसिंह के कठोर शब्दों को सुनकर उमा सिसक उठी, और पुनः वही बात दोहराई तो रामसिंह झपटकर उसके बालों को पकड़कर खींचते हुए चीखा--‘‘हमको शिक्षा दे रही है हरामजादी। तबसे तुझे समझा रहा हूँ, लेकिन वही मुर्गे की डेढ़ टाँग वाली रट...।’’ इसी के साथ उसने उमा को एक ओर ढकेल दिया। उमा लड़खड़ाती हुई सीधी दीवार से जा टकराई, जिससे उसके सर में चोट आ गयी और एक चीख के साथ वहीं गिरकर बेहोश हो गयी।
इसी समय रामसिंह की माँ प्रेमवती चीखते हुए बोली—‘‘अरे देखता क्या है रे, खतम कर दे कुतिया को। पता नहीं किस भिखारी खानदान से साबका पड़ा है। भेज दिया दुलहिन बनाकर, जैसे इसके खिलाने पिलाने का ठेका ले रखा है।’’
प्रेमवती की बात सुनकर वहीं मौजूद सीताराम ने दार्शनिकता बघारते हुए कहा—‘‘अरी भागवान, जब कानून कायदे नहीं जानती तो बीच में क्यों टाँग अड़ाती है।’’
‘‘जब कानून से इतना ही डरते हो तो करो उसकी पूजा। काहे के लिए यह नाटक कर रहे हो।’’ प्रेमवती ने तुनककर कहा तो सीताराम मुस्कराते हुए बोले—‘‘हो गई नाराज। अरे भाई पहले इसके बाप के पास दस हजार रुपयों की व्यवस्था करने की बात को कहला दो। उसके बाद जब उसका उत्तर आ जाये, तब आगे की योजना बनाई जाये।’’
‘‘इसके बाप का उत्तर आये या न आये। मैं तो बताये देती हूँ कि तुमको दस हजार तो क्या दस पैसे भी नहीं मिलेंगे।’’ प्रेमवती ने हाथ नचाते हुए कहा।
‘‘अगर वह रुपये नहीं देता तो अपनी लड़की को अपने घर बिठा ले, हम रामसिंह की दूसरी शादी करेंगे।’’ सीताराम ने मानो अपना अंतिम फैसला सुनाया हो।
‘‘बस ख्याली पुलाव पकाते रहो। करते धरते तो कुछ बनता नहीं...बात-बात में कानून का हौव्वा खड़ा करते रहते हो और...।’’ इसी के साथ प्रेमवती बेहोश पड़ी उमा की ओर झपटती हुई बोली—‘‘जरा नखरे तो देखो, कैसी पड़ी हुई है।’’ कहते हुए उसने पुनः उमा के बाल पकड़कर खींचना शुरू कर दिया। परन्तु उमा के शरीर में जब कोई हरकत न हुई तो वह घबराकर बोली--‘‘अजी देखो तो क्या हो गया है। यह तो बिलकुल हिल-डुल ही नहीं रही है।’’
रामसिंह उसकी तरफ बढ़कर बोला—‘‘अरे घबड़ा क्यों रही हो, जरा बेहोश हो गयी है। इसको जाकर अन्दर कोठरी में डाले देता हूँ।’’ इसके बाद उसने उमा को गठरी की तरह गोदी में उठाया और और दूसरे कमरे में ले जाकर चारपाई पर डाल दिया।
यह इत्तिफाक ही था कि इसी समय उमा को होश आ गया और उसने आँखें खोलकर देखा तो रामसिंह कर्कश स्वर में बोला—‘‘तो तू नाटक कर रही थी अभी तक।’’
अब प्रेमवती को यह बात मालूम हुई तो उसका खून ही खौल उठा। उसने निकट पड़े एक बेंत को उठाया और शीघ्रता से कमरे में प्रविष्ट होकर बोली—‘‘क्या यहाँ तेरे बाप ने नौकर भेज रखे हैं, जो तुझे थोपथोप कर खिलायेंगे।’’ इसके साथ ही उसने उमा की उसी बेंत से बड़ी बेरहमी से पिटाई करना शुरू कर दी। उमा दर्द से काफी चीखी-चिल्लाई परन्तु रामसिंह और सीताराम दोनों ही तमाशाई बने देखते रहे।
एक तो उमा पहले से ही घायल थी और अब प्रेमवती द्वारा बेंत से की गयी पिटाई से तो उसकी रही सही शक्ति भी समाप्त-सी हो गई। धीरे-धीरे उसके मुख से आवाज तक निकलना दुःस्वार हो गया। गला बैठता सा चला गया।
शायद अब सीताराम को कुछ तरस-सा आ गया था, अतः उन्होंने कहा—‘‘क्या उसको मार ही डालोगी।’’
‘‘हाँ-हाँ, मार डालूँगी। मेरे सामने ही त्रिया चरित्तर करती है...नौटंकी करती है...।’’ प्रेमवती चिल्लाई।
‘‘अच्छा अब छोड़ भी दो। बेचारी को देखो तो क्या हालत हो गयी है।’’ इसी के साथ सीताराम ने आगे बढ़कर प्रेमवती से बेंत छीन लिया।
उमा की दयनीय स्थिति को देखकर प्रेमवती का क्रोध लगभग शान्त हो रहा था। परन्तु इसके बावजूद वह उसे गालियाँ देते हुए कोठरी से बाहर निकल गयी।
जब रात्रि धीरे-धीरे गहरा गई तो रामसिंह कमरे में आया। उमा निढाल-सी एक ओर पड़ी हुई पीड़ा से कराह रही थी। जब उसने रामसिंह को कोठरी में प्रविष्ट होते हुए देखा तो एक दयनीय दृष्टि रामसिंह पर डाली परन्तु वह तो जैसे पत्थर का बना इन्सान था। वह उसकी ओर देखे बिना चुपचाप बिस्तर पर पड़ गया। उमा की कराहटें कोठरी में गूँज रही थी। वह अन्दर ही अन्दर दर्द से तड़प रही थी। कई बार उसने रामसिंह से सहायता की भीख माँगनी चाही, लेकिन एक तो गले से आवाज नहीं निकल रही थी, दूसरे रामसिंह ने इस तरह आँखें बन्द कर ली थी, मानो वह सो गया हो।
लगभग दो घण्टे बाद पता नहीं क्या सोचकर रामसिंह उठा और उमा के पास आकर बैठते हुए बोला—‘‘देखो उमा तुम बेकार में अपने बाप का पक्ष लेकर अपनी दुर्गति करा रही हो। आखिर जो कुछ हम लोग करेंगे, उसमें हम दोनों की ही भलाई है। तुम तो जानती ही हो घर की हालत क्या है। फिर कल को दो से चार होंगे तो खर्च भी बढ़ेगा। मैं तो चाहता हूँ कि तुम हम लोगों का साथ दो और फिर देखो तुम्हारी घर में कितनी खातिर होती है।’’
वह काफी देर तक उसे समझाता रहा, परन्तु उमा तो जैसे अपने वचन पर दृढ़ थी। हालाँकि वह बोल सकने में असमर्थ थी, परन्तु अन्ततः उसने कह ही दिया—‘‘तुम हमको मार डालो...लेकिन...।’’
‘‘ठीक है, अगर तुम अपनी बात पर दृढ़ रही तो तुम्हारी यह इच्छा भी पूरी कर दूँगा। ‘‘खूँख्वार लहजे में रामसिंह ने कहा और पुनः अपनी चारपाई पर आकर लेट गया।
प्रातः होते ही प्रेमवती कमरे में आयी। परन्तु जब उसने उमा को तड़पते देखा तो वह चुपचाप कमरे से बाहर चली गयी और सीताराम को उसकी हालत के बारे में बतला दिया। एक बार तो सीताराम परेशान हो उठे और वह बोले—‘‘मैं अभी डाक्टर को बुलवाता हूँ।’’
‘‘डाक्टर-वाक्टर की जरूरत नहीं है। मैं उसे जाकर मरहम पट्टी किये दे रही हूँ। हाँ तुम उसके घर जाकर कह दो कि उमा की हालत अच्छी नहीं है। वह तत्काल उसे विदा करा ले जायें। जब वह यहाँ उमा को लेने आयेंगे, तब मैं बात कर लूँगी।’’
‘‘नहीं इस समय मेरा जाना ठीक नहीं है। मैं गाँव के किसी और आदमी को भेजकर इत्तिला करवाये देता हूँ।’’ सीताराम ने कहा।
‘‘क्यों ’’-प्रेमवती ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।
‘‘तुम समझने की कोशिश करो...इस समय मैं वहाँ जाना उचित नहीं समझता हूँ’’-कहते हुए सीताराम घर से बाहर की ओर चले गये और प्रेमवती ने कोठरी में आकर उमा के सर तथा बदन पर कोई मरहम लगाकर पट्टी बांध दी। इस काम से निवृत्त होकर उसने रामसिंह को जगाया और उसे साथ लेकर कमरे से बाहर चली गयी।
लगभग एक घंटे बाद सीताराम जब वापस लौटा तो प्रेमवती ने पहला सवाल यही किया कि उसने किसको भेजा है। सीताराम ने बताया कि गांव के राधेश्याम को भेज दिया है। इस पर प्रेमवती ने शंकित होकर कहा—अगर उसने घर की बातें बतली दी तों क्या होगा ?’’
‘‘जो होगा देखा जायेगा। न तो मैं उमा के बाप से डरता हूँ और न ही राधेश्याम से।’’
‘‘डरने की बात नहीं है, कहीं कोई परेशानी न खड़ी हो जाये।’’ प्रेमवती बोली।
‘‘मैं हर परेशानी का सामना करने के लिए तैयार हूँ।’’ फिर बात को वहीं समाप्त करते हुए सीताराम ने कहा—‘‘क्या चाय पानी का बन्दोबस्त भी किया है, या बातों में ही समय बर्बाद करती रहोगी।’’
‘‘तुम लोग यहीं बैठो, मैं अभी चाय लेकर आती हूँ।’’ प्रेमवती ने कहा और कमरे से बाहर चली गयी।
प्रेमवती चाय और नाश्ता लेकर जब कमरे के अन्दर पहुँची तो रामसिंह अपने पिता के पास बैठा हुआ किसी विषय पर वार्तालाप कर रहा था। प्रेमवती चाय का गिलास दोनों के हाथों में देकर कमरे के बाहर चली गयी और दैनिक कार्यों में लग गयी।
चाय पीने का बाद सीताराम नहा-धोकर तैयार हो गए और प्रेमवती के पास आकर बोले, ‘‘मैं बाजार जा रहा हूँ। खाने पर मेरा इन्तजार मत करना। हो सकता है, मैं शाम तक घर आ सकूँ।’’ इसके साथ ही उन्होंने एक थैला उठाया और घर से बाहर चले गये।
सीताराम घर से बाहर तो आ गये, लेकिन कुछ क्षणों तक असमंजसपूर्ण स्थिति में पड़े रहे। वैसे उन्हें इस बात का ज्ञान था कि गाँव में ऐसे बहुत कम ही लोग थे, जिनसे उनका याराना हो। यहाँ तक रिश्तेदार नातेदारों के यहाँ भी वह बहुत कम ही जाते थे और उन्हें स्वयं यह पसन्द नहीं था कि कोई रिश्तेदार नातेदार उनके यहाँ आये। इसका मुख्य कारण था उनकी विचारधारा। उनका कहना था कि किसी के यहाँ आने जाने से पैसा अधिक खर्च होता है। लेकिन गाँव में एक ऐसा भी शख्स था, जिससे उनका घनिष्ठ याराना था। वक्त जरूरत पर वह मदन की शरण में जा पड़ता और उस वक्त मदन उसकी मनोभावना समझ कर जितना चाहता खर्च करा लेता था। यही कारण था कि ऐसे गम्भीर समय में उसे बरबस ही मदन की याद आ गयी। परन्तु यह सोचकर मायूस हो उठा कि मदन ज्यादातर घर से बाहर रहता था और उसके मिलने का मुख्य स्थान वहाँ मीलों दूर जंगल था। फिर भी पता नहीं क्या सोचकर वह मदन के निवास स्थान पर जा ही पहुँचा। चूंकि घर के दरवाजे खुले हुए थे इसलिए उसने राहत की साँस ली और मदन को आवाज लगा दी।
कुछ ही देर में मदन घर से बाहर निकला और सीताराम को देखकर हर्षित होते हुए बोला—‘‘अहोभाग्य जो तेरे दर्शन हो गये। अन्यथा तेरे तो दर्शन तक को हम तरस गये हैं।’’
‘‘यार काम की व्यस्तता के कारण कहीं आना जाना हो ही नहीं पाता’’-सीताराम ने हँसते हुए कहा—‘‘फिर तू ही कब मेरे दरवाजे पर आता है।’’
‘‘मुझे हार्दिक खुशी है जो तुझे कम से कम इतने बाद ही सही, मुझसे मिलने की याद तो आ गयी। मैं तो यही समझा था कि तू मुझे भूल ही गया है।’’ मदन ने भी हँसते हुए जवाब दिया—‘‘वैसे तू तो अच्छी तरह जानता है कि मैं अकारण बिना बुलाये किसी के घर नहीं जाया करता।’’
सीताराम ने बात को बदलते हुए पूछा—‘‘क्या आज भी तू अकेला ही है, या भाभी...।’’
‘भाभी’ कहते हुए मदन ने ठहाका लगा दिया—‘‘अरे सीताराम मुझ जैसे फक्कड़ के पहलू में कौन अपनी बिटिया ब्याहेगा। वैसे भी हम रमते जोगी और बहते पानी हैं। यदि भाभी से मिलने की ही ख्वाहिश हुआ करे तो रात में आया कर। हर रात तुझे नयी भाभी के दर्शन होंगे।’’
‘‘बहुत पहुँचे हुए मालूम होते हो।’’ सीताराम हँसते हुए मदन के साथ घर के अन्दर चला गया।
‘‘क्या पियोगे सीताराम...कहो तो पास के ही होटल से चाय मँगवा दूँ या फिर शीरा का शरबत बनाऊँ।’’ मदन ने पूछा।
‘‘यार, चाय तो घर से पीकर चला हूँ। हाँ शरबत पीने की तो आदत अपनी है नहीं, कुछ नरम-गरम पिलाओ तो है भी।’’ सीताराम ने हँसते हुए कहा।
‘‘यार तू तो कुछ समझता ही नहीं है, अभी फसल तक तो कटी नहीं है। जो पैसा था, वह सब जुतायी बुआई खा गयी। फिर वही तो हम लोगन की रोजी रोटी है। इसलिए फिलहाल तुम्हारी तबियत को खुश करने में असमर्थ हूँ। अतः आज शीरे शर्बत से ही संतोष करो।’’
‘‘यार मदन घर आये मेहमान की खातिर के लिए तो लोग दूसरों से कर्ज तक ले लेते हैं और एक तू है...।’’
‘‘तुम्हारी बात सच है सीताराम।’’ मदन एकाएक गंभीर हो उठा—‘‘अगर तू मेहमान बनकर आया है तो अवश्य मैं किसी कर्ज लेकर तुझे रंगीन शरबत पिलाऊँगा लेकिन यदि तू मेरा यार बनकर आया है तो मेरी मजबूरी को समझ। अब तुझसे क्या छिपाना...।’’
‘‘अरे तू तो बुरा मान गया।’’ सीताराम ने हँसते हुए कहा—‘‘आज तक कितनी फसलें कट चुकी हैं, लेकिन हर बार तू कोई न कोई बहाना बना देता है।’’
‘‘नहीं सीताराम, जिसकी जिन्दगी की फसल उजड़ चुकी होती है, उसके जीवन में कोई फसल नहीं कटती।’’ मदन पुनः गम्भीर स्वर में कहा—‘‘तू ही एक मेरा गाँव में सच्चा यार है, इसलिए हम पूरे गाँव में तुझे ही अपना समझता हूँ। आज तीन साल हो गये, गाँव के किसी आदमी से मेरा कोई याराना नहीं हो सका। हाँ कभी कभार दुआ सलाम हो जाये तो ठीक है।’’
‘‘यह बात तो सही है मदन...लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आती है कि तू किस गाँव का रहने वाला है, तेरा परिवार कहाँ है और तू करता क्या है। ज्यादातर तो तेरे दरवाजे पर ताला ही लटकता रहता है।’’
‘‘एक बहुत दुःखभरी कहानी है सीताराम...किसी दिन तुझे अपनी जिन्दगी के कुछ लमहों को सुनाऊँगा...वास्तविकता यह है कि मेरी जिन्दगी में ऐसा घुन लग चुका है कि मैं न तो किसी से दोस्ती करता हूँ और न ही किसी से दुश्मनी। मुझे एक तरह से समाज से नफरत हो गयी है और यही कारण है कि मैं ज्यादातर वीराने में शान्ति से रहकर अपने शेष दिनों को गुजारना चाहता हूँ।’’
‘‘अरे यार मेरा उद्देश्य तुम्हारे दिल को ठेस पहुँचाने का नहीं था, एक दोस्त के नाते ही पूछ लिया...खैर चल आज भी मेरी तरफ से रंगीन दावत है...।’’
‘‘नहीं यार यह शोभा नहीं देता, तू तो मेरा मेहमान है, इस बार की फसल तैयार हो जाने दे फिर देखना मैं तेरी कैसी दावत करता हूँ...।’’
‘‘जब फसल कट जायेगी, तब मैं मय सूद ब्याज के दावत वसूल कर लूँगा। अब उठ भी, मेरा हलक प्यास से सूखा जा रहा है।’’
‘‘ठीक है, जब तू जिद ही कर रहा है तो चला चलता हूँ, लेकिन ज्यादा नहीं लूँगा।’’ मदन के चेहरे पर मुस्कराहट खिल उठी।
सीताराम मदन को साथ लेकर बाजार पहुँचा और ठेके पर जाकर एक बोतल रंगीन खरीदी और कुछ नमकीन लेकर वहीं बेन्च पर बैठ गये। सीताराम बोतल की काग खोलने लगा तो मदन हँसते हुए बोला—‘‘जरा धीरे-धीरे हाथ चलाना, कहीं घायल न हो जाये।’’
‘‘मदन’’—सीताराम कर्कश स्वर में बोला—‘‘ऐसा मालूम होता है कि बिना पिये ही तुझ पर नशा चढ़ने लगा है।’’
‘‘यार तू तो बुरा मान गया’’—मदन ने मुस्कुराते हुए कहा—‘‘खैर छोड़ो भी, सील टूटी या नहीं।’’
‘‘सील तो कब की टूट चुकी है, सिर्फ ढलने की देर है।’’ सीताराम ने कहा और शराब को कुझ्झी में ढालते हुए किसी सोच में डूबता-सा चला गया। शायद उसे घर की याद हो आयी थी।
‘‘यह तुम्हारे चेहरे पर अकारण बारह क्यों बजने लगे सीताराम’’—मदन आश्चर्य मिश्रित स्वर में बोला।
‘‘कुछ नहीं यार...पारिवारिक जीवन में नित्यप्रति कोई न कोई समस्या खड़ी ही रहती है। आज भी एक ऐसी समस्या आ पड़ी है, जिसका हल नहीं निकल पा रहा है’’—कहते हुए उसने कुझ्झी एक ही घूँट में खाली कर दी।
‘‘ऐसी कौन-सी समस्या है, जिसका समाधान नहीं है।’’ मदन ने कहा—अगर तू मुझ पर विश्वास करता है, तो मुझे बता, हो सकता है कि मैं कोई उपाय बता दूँ।’’
‘‘यार तुझे ही तो अपना समझता हूँ, अन्यथा गाँव में सभी तो अपने बैरी बने हुए हैं, पता नहीं क्यों मुझे खाते-पीते देखकर उन्हें कुढ़न-सी होती है।’’ सीताराम अब कुछ बहकने सा लगा था।
‘‘अरे गोली मार गाँव वालों को’—मदन ने कहा—‘‘तू अपनी समस्या बता।’’
‘‘वही तो बता रहा हूँ’’—सीताराम ने पुनः कुझ्झी खाली की और बोला—‘‘तेरी भाभी का विचार है कि रामसिंह की दूसरी शादी कर दी जाये।’’
‘‘दूसरी शादी, भला वह क्यों’’—मदन ने उत्सुकता से पूछा।
‘‘तुम तो जानते ही हो पतोहू कोई दान दहेज लेकर तो आई नहीं है। दूसरे घर में भी आराम से पड़ी रहती है। न काम से मतलब न धाम से। मैंने उससे कहा कि अपने बाप से दस हजार रुपये दिलवा दो, जिससे रामसिंह कोई धंधा कर सके तो वह तैयार ही नहीं हो रही है।’’
‘‘बात तो भाभी की सही है’’—मदन ने मुस्कुराते हुए कहा—‘‘मेरे विचार से तो उसका बाप इतने रुपये नहीं दे पायेगा।’’
‘‘यही तो तुम्हारी भाभी भी कहती है।’’ सीताराम बोले—‘‘वह तो कहती है कि ससुरी को खतम कर दो, लेकिन मुझे तो डर लगता है।’’
‘‘कैसा डर’’—मदन मुस्कुराते हुए बोला—‘‘भाई जब तक उसे रास्ते से हटाओगे नहीं, तब तक रामसिंह की दूसरी शादी होने से रही।’’
रामसिंह निरंतर एक ही बात उमा से कहता था—‘‘उमा बस केवल दस हजार रुपयों की ही तो बात है, अपने बाप से ला दे। मैं कोई अच्छा-सा व्यवसाय कर लूँगा और फिर तू रानी की तरह इस घर में राज करेगी।’’
‘‘आप समझने की कोशिश क्यों नहीं करते। अभी साल भर तो नहीं बीता विवाह को। सब कुछ तो बिक चुका है। मैं किस मुँह से उनसे रुपयों की बात कहूँ। यदि आप कोई धन्धा ही करना ही चाहते हैं तो आप मेरे गहनों को बेचकर कोई बढ़िया-सा धन्धा कर लें, ईश्वर ने चाहा तो...।’’ उमा ने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि रामसिंह चीख उठा—‘‘देख यह तिरिया चरित्तर किसी और को दिखाना। अब तक तो तुझे समझाता बुझाता रहा, लेकिन अब स्पष्ट शब्दों में कहे देता हूँ कि अगर तू अपनी भलाई चाहती है तो अपने बाप से जाकर कह दे कि वह दस हजार रुपयों की तुरन्त व्यवस्था कर दें अन्यथा....।’’
रामसिंह के कठोर शब्दों को सुनकर उमा सिसक उठी, और पुनः वही बात दोहराई तो रामसिंह झपटकर उसके बालों को पकड़कर खींचते हुए चीखा--‘‘हमको शिक्षा दे रही है हरामजादी। तबसे तुझे समझा रहा हूँ, लेकिन वही मुर्गे की डेढ़ टाँग वाली रट...।’’ इसी के साथ उसने उमा को एक ओर ढकेल दिया। उमा लड़खड़ाती हुई सीधी दीवार से जा टकराई, जिससे उसके सर में चोट आ गयी और एक चीख के साथ वहीं गिरकर बेहोश हो गयी।
इसी समय रामसिंह की माँ प्रेमवती चीखते हुए बोली—‘‘अरे देखता क्या है रे, खतम कर दे कुतिया को। पता नहीं किस भिखारी खानदान से साबका पड़ा है। भेज दिया दुलहिन बनाकर, जैसे इसके खिलाने पिलाने का ठेका ले रखा है।’’
प्रेमवती की बात सुनकर वहीं मौजूद सीताराम ने दार्शनिकता बघारते हुए कहा—‘‘अरी भागवान, जब कानून कायदे नहीं जानती तो बीच में क्यों टाँग अड़ाती है।’’
‘‘जब कानून से इतना ही डरते हो तो करो उसकी पूजा। काहे के लिए यह नाटक कर रहे हो।’’ प्रेमवती ने तुनककर कहा तो सीताराम मुस्कराते हुए बोले—‘‘हो गई नाराज। अरे भाई पहले इसके बाप के पास दस हजार रुपयों की व्यवस्था करने की बात को कहला दो। उसके बाद जब उसका उत्तर आ जाये, तब आगे की योजना बनाई जाये।’’
‘‘इसके बाप का उत्तर आये या न आये। मैं तो बताये देती हूँ कि तुमको दस हजार तो क्या दस पैसे भी नहीं मिलेंगे।’’ प्रेमवती ने हाथ नचाते हुए कहा।
‘‘अगर वह रुपये नहीं देता तो अपनी लड़की को अपने घर बिठा ले, हम रामसिंह की दूसरी शादी करेंगे।’’ सीताराम ने मानो अपना अंतिम फैसला सुनाया हो।
‘‘बस ख्याली पुलाव पकाते रहो। करते धरते तो कुछ बनता नहीं...बात-बात में कानून का हौव्वा खड़ा करते रहते हो और...।’’ इसी के साथ प्रेमवती बेहोश पड़ी उमा की ओर झपटती हुई बोली—‘‘जरा नखरे तो देखो, कैसी पड़ी हुई है।’’ कहते हुए उसने पुनः उमा के बाल पकड़कर खींचना शुरू कर दिया। परन्तु उमा के शरीर में जब कोई हरकत न हुई तो वह घबराकर बोली--‘‘अजी देखो तो क्या हो गया है। यह तो बिलकुल हिल-डुल ही नहीं रही है।’’
रामसिंह उसकी तरफ बढ़कर बोला—‘‘अरे घबड़ा क्यों रही हो, जरा बेहोश हो गयी है। इसको जाकर अन्दर कोठरी में डाले देता हूँ।’’ इसके बाद उसने उमा को गठरी की तरह गोदी में उठाया और और दूसरे कमरे में ले जाकर चारपाई पर डाल दिया।
यह इत्तिफाक ही था कि इसी समय उमा को होश आ गया और उसने आँखें खोलकर देखा तो रामसिंह कर्कश स्वर में बोला—‘‘तो तू नाटक कर रही थी अभी तक।’’
अब प्रेमवती को यह बात मालूम हुई तो उसका खून ही खौल उठा। उसने निकट पड़े एक बेंत को उठाया और शीघ्रता से कमरे में प्रविष्ट होकर बोली—‘‘क्या यहाँ तेरे बाप ने नौकर भेज रखे हैं, जो तुझे थोपथोप कर खिलायेंगे।’’ इसके साथ ही उसने उमा की उसी बेंत से बड़ी बेरहमी से पिटाई करना शुरू कर दी। उमा दर्द से काफी चीखी-चिल्लाई परन्तु रामसिंह और सीताराम दोनों ही तमाशाई बने देखते रहे।
एक तो उमा पहले से ही घायल थी और अब प्रेमवती द्वारा बेंत से की गयी पिटाई से तो उसकी रही सही शक्ति भी समाप्त-सी हो गई। धीरे-धीरे उसके मुख से आवाज तक निकलना दुःस्वार हो गया। गला बैठता सा चला गया।
शायद अब सीताराम को कुछ तरस-सा आ गया था, अतः उन्होंने कहा—‘‘क्या उसको मार ही डालोगी।’’
‘‘हाँ-हाँ, मार डालूँगी। मेरे सामने ही त्रिया चरित्तर करती है...नौटंकी करती है...।’’ प्रेमवती चिल्लाई।
‘‘अच्छा अब छोड़ भी दो। बेचारी को देखो तो क्या हालत हो गयी है।’’ इसी के साथ सीताराम ने आगे बढ़कर प्रेमवती से बेंत छीन लिया।
उमा की दयनीय स्थिति को देखकर प्रेमवती का क्रोध लगभग शान्त हो रहा था। परन्तु इसके बावजूद वह उसे गालियाँ देते हुए कोठरी से बाहर निकल गयी।
जब रात्रि धीरे-धीरे गहरा गई तो रामसिंह कमरे में आया। उमा निढाल-सी एक ओर पड़ी हुई पीड़ा से कराह रही थी। जब उसने रामसिंह को कोठरी में प्रविष्ट होते हुए देखा तो एक दयनीय दृष्टि रामसिंह पर डाली परन्तु वह तो जैसे पत्थर का बना इन्सान था। वह उसकी ओर देखे बिना चुपचाप बिस्तर पर पड़ गया। उमा की कराहटें कोठरी में गूँज रही थी। वह अन्दर ही अन्दर दर्द से तड़प रही थी। कई बार उसने रामसिंह से सहायता की भीख माँगनी चाही, लेकिन एक तो गले से आवाज नहीं निकल रही थी, दूसरे रामसिंह ने इस तरह आँखें बन्द कर ली थी, मानो वह सो गया हो।
लगभग दो घण्टे बाद पता नहीं क्या सोचकर रामसिंह उठा और उमा के पास आकर बैठते हुए बोला—‘‘देखो उमा तुम बेकार में अपने बाप का पक्ष लेकर अपनी दुर्गति करा रही हो। आखिर जो कुछ हम लोग करेंगे, उसमें हम दोनों की ही भलाई है। तुम तो जानती ही हो घर की हालत क्या है। फिर कल को दो से चार होंगे तो खर्च भी बढ़ेगा। मैं तो चाहता हूँ कि तुम हम लोगों का साथ दो और फिर देखो तुम्हारी घर में कितनी खातिर होती है।’’
वह काफी देर तक उसे समझाता रहा, परन्तु उमा तो जैसे अपने वचन पर दृढ़ थी। हालाँकि वह बोल सकने में असमर्थ थी, परन्तु अन्ततः उसने कह ही दिया—‘‘तुम हमको मार डालो...लेकिन...।’’
‘‘ठीक है, अगर तुम अपनी बात पर दृढ़ रही तो तुम्हारी यह इच्छा भी पूरी कर दूँगा। ‘‘खूँख्वार लहजे में रामसिंह ने कहा और पुनः अपनी चारपाई पर आकर लेट गया।
प्रातः होते ही प्रेमवती कमरे में आयी। परन्तु जब उसने उमा को तड़पते देखा तो वह चुपचाप कमरे से बाहर चली गयी और सीताराम को उसकी हालत के बारे में बतला दिया। एक बार तो सीताराम परेशान हो उठे और वह बोले—‘‘मैं अभी डाक्टर को बुलवाता हूँ।’’
‘‘डाक्टर-वाक्टर की जरूरत नहीं है। मैं उसे जाकर मरहम पट्टी किये दे रही हूँ। हाँ तुम उसके घर जाकर कह दो कि उमा की हालत अच्छी नहीं है। वह तत्काल उसे विदा करा ले जायें। जब वह यहाँ उमा को लेने आयेंगे, तब मैं बात कर लूँगी।’’
‘‘नहीं इस समय मेरा जाना ठीक नहीं है। मैं गाँव के किसी और आदमी को भेजकर इत्तिला करवाये देता हूँ।’’ सीताराम ने कहा।
‘‘क्यों ’’-प्रेमवती ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।
‘‘तुम समझने की कोशिश करो...इस समय मैं वहाँ जाना उचित नहीं समझता हूँ’’-कहते हुए सीताराम घर से बाहर की ओर चले गये और प्रेमवती ने कोठरी में आकर उमा के सर तथा बदन पर कोई मरहम लगाकर पट्टी बांध दी। इस काम से निवृत्त होकर उसने रामसिंह को जगाया और उसे साथ लेकर कमरे से बाहर चली गयी।
लगभग एक घंटे बाद सीताराम जब वापस लौटा तो प्रेमवती ने पहला सवाल यही किया कि उसने किसको भेजा है। सीताराम ने बताया कि गांव के राधेश्याम को भेज दिया है। इस पर प्रेमवती ने शंकित होकर कहा—अगर उसने घर की बातें बतली दी तों क्या होगा ?’’
‘‘जो होगा देखा जायेगा। न तो मैं उमा के बाप से डरता हूँ और न ही राधेश्याम से।’’
‘‘डरने की बात नहीं है, कहीं कोई परेशानी न खड़ी हो जाये।’’ प्रेमवती बोली।
‘‘मैं हर परेशानी का सामना करने के लिए तैयार हूँ।’’ फिर बात को वहीं समाप्त करते हुए सीताराम ने कहा—‘‘क्या चाय पानी का बन्दोबस्त भी किया है, या बातों में ही समय बर्बाद करती रहोगी।’’
‘‘तुम लोग यहीं बैठो, मैं अभी चाय लेकर आती हूँ।’’ प्रेमवती ने कहा और कमरे से बाहर चली गयी।
प्रेमवती चाय और नाश्ता लेकर जब कमरे के अन्दर पहुँची तो रामसिंह अपने पिता के पास बैठा हुआ किसी विषय पर वार्तालाप कर रहा था। प्रेमवती चाय का गिलास दोनों के हाथों में देकर कमरे के बाहर चली गयी और दैनिक कार्यों में लग गयी।
चाय पीने का बाद सीताराम नहा-धोकर तैयार हो गए और प्रेमवती के पास आकर बोले, ‘‘मैं बाजार जा रहा हूँ। खाने पर मेरा इन्तजार मत करना। हो सकता है, मैं शाम तक घर आ सकूँ।’’ इसके साथ ही उन्होंने एक थैला उठाया और घर से बाहर चले गये।
सीताराम घर से बाहर तो आ गये, लेकिन कुछ क्षणों तक असमंजसपूर्ण स्थिति में पड़े रहे। वैसे उन्हें इस बात का ज्ञान था कि गाँव में ऐसे बहुत कम ही लोग थे, जिनसे उनका याराना हो। यहाँ तक रिश्तेदार नातेदारों के यहाँ भी वह बहुत कम ही जाते थे और उन्हें स्वयं यह पसन्द नहीं था कि कोई रिश्तेदार नातेदार उनके यहाँ आये। इसका मुख्य कारण था उनकी विचारधारा। उनका कहना था कि किसी के यहाँ आने जाने से पैसा अधिक खर्च होता है। लेकिन गाँव में एक ऐसा भी शख्स था, जिससे उनका घनिष्ठ याराना था। वक्त जरूरत पर वह मदन की शरण में जा पड़ता और उस वक्त मदन उसकी मनोभावना समझ कर जितना चाहता खर्च करा लेता था। यही कारण था कि ऐसे गम्भीर समय में उसे बरबस ही मदन की याद आ गयी। परन्तु यह सोचकर मायूस हो उठा कि मदन ज्यादातर घर से बाहर रहता था और उसके मिलने का मुख्य स्थान वहाँ मीलों दूर जंगल था। फिर भी पता नहीं क्या सोचकर वह मदन के निवास स्थान पर जा ही पहुँचा। चूंकि घर के दरवाजे खुले हुए थे इसलिए उसने राहत की साँस ली और मदन को आवाज लगा दी।
कुछ ही देर में मदन घर से बाहर निकला और सीताराम को देखकर हर्षित होते हुए बोला—‘‘अहोभाग्य जो तेरे दर्शन हो गये। अन्यथा तेरे तो दर्शन तक को हम तरस गये हैं।’’
‘‘यार काम की व्यस्तता के कारण कहीं आना जाना हो ही नहीं पाता’’-सीताराम ने हँसते हुए कहा—‘‘फिर तू ही कब मेरे दरवाजे पर आता है।’’
‘‘मुझे हार्दिक खुशी है जो तुझे कम से कम इतने बाद ही सही, मुझसे मिलने की याद तो आ गयी। मैं तो यही समझा था कि तू मुझे भूल ही गया है।’’ मदन ने भी हँसते हुए जवाब दिया—‘‘वैसे तू तो अच्छी तरह जानता है कि मैं अकारण बिना बुलाये किसी के घर नहीं जाया करता।’’
सीताराम ने बात को बदलते हुए पूछा—‘‘क्या आज भी तू अकेला ही है, या भाभी...।’’
‘भाभी’ कहते हुए मदन ने ठहाका लगा दिया—‘‘अरे सीताराम मुझ जैसे फक्कड़ के पहलू में कौन अपनी बिटिया ब्याहेगा। वैसे भी हम रमते जोगी और बहते पानी हैं। यदि भाभी से मिलने की ही ख्वाहिश हुआ करे तो रात में आया कर। हर रात तुझे नयी भाभी के दर्शन होंगे।’’
‘‘बहुत पहुँचे हुए मालूम होते हो।’’ सीताराम हँसते हुए मदन के साथ घर के अन्दर चला गया।
‘‘क्या पियोगे सीताराम...कहो तो पास के ही होटल से चाय मँगवा दूँ या फिर शीरा का शरबत बनाऊँ।’’ मदन ने पूछा।
‘‘यार, चाय तो घर से पीकर चला हूँ। हाँ शरबत पीने की तो आदत अपनी है नहीं, कुछ नरम-गरम पिलाओ तो है भी।’’ सीताराम ने हँसते हुए कहा।
‘‘यार तू तो कुछ समझता ही नहीं है, अभी फसल तक तो कटी नहीं है। जो पैसा था, वह सब जुतायी बुआई खा गयी। फिर वही तो हम लोगन की रोजी रोटी है। इसलिए फिलहाल तुम्हारी तबियत को खुश करने में असमर्थ हूँ। अतः आज शीरे शर्बत से ही संतोष करो।’’
‘‘यार मदन घर आये मेहमान की खातिर के लिए तो लोग दूसरों से कर्ज तक ले लेते हैं और एक तू है...।’’
‘‘तुम्हारी बात सच है सीताराम।’’ मदन एकाएक गंभीर हो उठा—‘‘अगर तू मेहमान बनकर आया है तो अवश्य मैं किसी कर्ज लेकर तुझे रंगीन शरबत पिलाऊँगा लेकिन यदि तू मेरा यार बनकर आया है तो मेरी मजबूरी को समझ। अब तुझसे क्या छिपाना...।’’
‘‘अरे तू तो बुरा मान गया।’’ सीताराम ने हँसते हुए कहा—‘‘आज तक कितनी फसलें कट चुकी हैं, लेकिन हर बार तू कोई न कोई बहाना बना देता है।’’
‘‘नहीं सीताराम, जिसकी जिन्दगी की फसल उजड़ चुकी होती है, उसके जीवन में कोई फसल नहीं कटती।’’ मदन पुनः गम्भीर स्वर में कहा—‘‘तू ही एक मेरा गाँव में सच्चा यार है, इसलिए हम पूरे गाँव में तुझे ही अपना समझता हूँ। आज तीन साल हो गये, गाँव के किसी आदमी से मेरा कोई याराना नहीं हो सका। हाँ कभी कभार दुआ सलाम हो जाये तो ठीक है।’’
‘‘यह बात तो सही है मदन...लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आती है कि तू किस गाँव का रहने वाला है, तेरा परिवार कहाँ है और तू करता क्या है। ज्यादातर तो तेरे दरवाजे पर ताला ही लटकता रहता है।’’
‘‘एक बहुत दुःखभरी कहानी है सीताराम...किसी दिन तुझे अपनी जिन्दगी के कुछ लमहों को सुनाऊँगा...वास्तविकता यह है कि मेरी जिन्दगी में ऐसा घुन लग चुका है कि मैं न तो किसी से दोस्ती करता हूँ और न ही किसी से दुश्मनी। मुझे एक तरह से समाज से नफरत हो गयी है और यही कारण है कि मैं ज्यादातर वीराने में शान्ति से रहकर अपने शेष दिनों को गुजारना चाहता हूँ।’’
‘‘अरे यार मेरा उद्देश्य तुम्हारे दिल को ठेस पहुँचाने का नहीं था, एक दोस्त के नाते ही पूछ लिया...खैर चल आज भी मेरी तरफ से रंगीन दावत है...।’’
‘‘नहीं यार यह शोभा नहीं देता, तू तो मेरा मेहमान है, इस बार की फसल तैयार हो जाने दे फिर देखना मैं तेरी कैसी दावत करता हूँ...।’’
‘‘जब फसल कट जायेगी, तब मैं मय सूद ब्याज के दावत वसूल कर लूँगा। अब उठ भी, मेरा हलक प्यास से सूखा जा रहा है।’’
‘‘ठीक है, जब तू जिद ही कर रहा है तो चला चलता हूँ, लेकिन ज्यादा नहीं लूँगा।’’ मदन के चेहरे पर मुस्कराहट खिल उठी।
सीताराम मदन को साथ लेकर बाजार पहुँचा और ठेके पर जाकर एक बोतल रंगीन खरीदी और कुछ नमकीन लेकर वहीं बेन्च पर बैठ गये। सीताराम बोतल की काग खोलने लगा तो मदन हँसते हुए बोला—‘‘जरा धीरे-धीरे हाथ चलाना, कहीं घायल न हो जाये।’’
‘‘मदन’’—सीताराम कर्कश स्वर में बोला—‘‘ऐसा मालूम होता है कि बिना पिये ही तुझ पर नशा चढ़ने लगा है।’’
‘‘यार तू तो बुरा मान गया’’—मदन ने मुस्कुराते हुए कहा—‘‘खैर छोड़ो भी, सील टूटी या नहीं।’’
‘‘सील तो कब की टूट चुकी है, सिर्फ ढलने की देर है।’’ सीताराम ने कहा और शराब को कुझ्झी में ढालते हुए किसी सोच में डूबता-सा चला गया। शायद उसे घर की याद हो आयी थी।
‘‘यह तुम्हारे चेहरे पर अकारण बारह क्यों बजने लगे सीताराम’’—मदन आश्चर्य मिश्रित स्वर में बोला।
‘‘कुछ नहीं यार...पारिवारिक जीवन में नित्यप्रति कोई न कोई समस्या खड़ी ही रहती है। आज भी एक ऐसी समस्या आ पड़ी है, जिसका हल नहीं निकल पा रहा है’’—कहते हुए उसने कुझ्झी एक ही घूँट में खाली कर दी।
‘‘ऐसी कौन-सी समस्या है, जिसका समाधान नहीं है।’’ मदन ने कहा—अगर तू मुझ पर विश्वास करता है, तो मुझे बता, हो सकता है कि मैं कोई उपाय बता दूँ।’’
‘‘यार तुझे ही तो अपना समझता हूँ, अन्यथा गाँव में सभी तो अपने बैरी बने हुए हैं, पता नहीं क्यों मुझे खाते-पीते देखकर उन्हें कुढ़न-सी होती है।’’ सीताराम अब कुछ बहकने सा लगा था।
‘‘अरे गोली मार गाँव वालों को’—मदन ने कहा—‘‘तू अपनी समस्या बता।’’
‘‘वही तो बता रहा हूँ’’—सीताराम ने पुनः कुझ्झी खाली की और बोला—‘‘तेरी भाभी का विचार है कि रामसिंह की दूसरी शादी कर दी जाये।’’
‘‘दूसरी शादी, भला वह क्यों’’—मदन ने उत्सुकता से पूछा।
‘‘तुम तो जानते ही हो पतोहू कोई दान दहेज लेकर तो आई नहीं है। दूसरे घर में भी आराम से पड़ी रहती है। न काम से मतलब न धाम से। मैंने उससे कहा कि अपने बाप से दस हजार रुपये दिलवा दो, जिससे रामसिंह कोई धंधा कर सके तो वह तैयार ही नहीं हो रही है।’’
‘‘बात तो भाभी की सही है’’—मदन ने मुस्कुराते हुए कहा—‘‘मेरे विचार से तो उसका बाप इतने रुपये नहीं दे पायेगा।’’
‘‘यही तो तुम्हारी भाभी भी कहती है।’’ सीताराम बोले—‘‘वह तो कहती है कि ससुरी को खतम कर दो, लेकिन मुझे तो डर लगता है।’’
‘‘कैसा डर’’—मदन मुस्कुराते हुए बोला—‘‘भाई जब तक उसे रास्ते से हटाओगे नहीं, तब तक रामसिंह की दूसरी शादी होने से रही।’’
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